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क्या हुआ जब मछलियों को दी गई डिप्रेशन की दवा -Bharat24



फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की है कि डिप्रेशन की जो दवाएं पानी में बहा दी जाती हैं, उनका पर्यावरण पर क्या असर होता है. इसके लिए उन्होंने मछलियों पर अनूठा प्रयोग किया.वैज्ञानिकों ने जब क्रेफिश या कर्क मछलियों के रहने वाले पानी में डिप्रेशन दूर करने वाली दवाएं डाल दीं, तो उनका व्यवहार बदल गया. वे ज्यादा साहसी हो गईं और अपने छिपने की जगह से ज्यादा तेजी से बाहर आने लगीं व खाना खोजने में ज्यादा वक्त बिताने लगीं. ईकोस्फीयर नामक साइंस पत्रिका में छपे इस शोध में वैज्ञानिक यह जानना चाह रहे थे कि इंसानों को दी जाने वाली दवाओं का जलीय जीवों पर क्या असर होता है. शोधकर्ताओं ने पाया कि इंसानी दवाएं जलीय जीवों के खान-पान की पूरी व्यवस्था व पारिस्थितिकी को प्रभावित करती हैं. दवा जब जल में मिले इस विषय पर पहले हुए शोधों में वैज्ञानिकों ने जानवरों को सीधे-सीधे डिप्रेशन की दवाओं के टीके ही लगा दिए थे. लेकिन तब यह संदेह जताया गया था कि जानवरों को उनके रोजमर्रा की गतिविधियों से इतनी मात्रा में दवा नहीं मिल सकती. अब अमेरिका स्थित फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चरल साइंसेज की टीम ने नए तरीके से यह शोध किया है. मुख्य शोधकर्ता एलेग्जेंडर राइजिंगर ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "हमारा काम साबित करता है कि कुदरती माहौल में भी एक चुनिंदा एंटी डिप्रेसेंट क्रेफिश का व्यवहार बदल सकता है.” डिप्रेशन होने पर दी जाने वाली दवाएं, जिन्हें एंटी डिप्रेसेंट्स कहा जाता है, जो सीधे बह जाती हैं या मानव शरीर से निकलती हैं, वे पर्यावरण में मिल जाती हैं.


लीक होते सेप्टिक सिस्टम या जल संवर्धन संयंत्र, जिनमें उन्हें छानने की क्षमता नहीं होती, एंटी डिप्रेसेंट के पर्यावरण में मिल जाने का साधन बनते हैं. शोधकर्ताओं ने सिलेक्टिव सेरोटोनिन रीअपटेक इनहिबिटर्स (एसएसआरआई) के प्रभाव का अध्ययन किया. ये एंटी डिप्रेसेंट्स का ही एक प्रकार हैं जो मस्तिष्क में ‘खुश महसूस' कराने वाले रसायन सेरोटोनिन की मात्रा बढ़ा देते हैं. आमतौर पर डॉक्टर डिप्रेशन के मरीजों को फ्लूक्सोटीन दवा देते हैं, प्रोजैक, सिटैलोप्रैम या सेलेक्सा आदि के नाम से बाजारों में बिकती है.


अमेरिकी एजेंसियों इस्तेमाल ना की गई दवाओं को पानी में बहाने से मना करती हैं क्योंकि इनके पर्यावरण पर बुरे प्रभाव होते हैं. वहां की ड्रग एनफोर्समेंट एजेंसी समय-समय पर दवा-वापसी जैसे अभियान चलाती रहती है, जिसमें लोग इस्तेमाल न हुई दवाएं लौटा सकते हैं ताकि उनका सही निस्तारण किया जा सके. कैसे हुआ शोध अपने शोध के लिए फ्लोरिडा विश्वविद्यालय की टीम ने प्रयोगशाला में ही ताजे पानी की झील जैसा माहौल तैयार किया था. इस शोध के लिए कुछ मछलियों को दो हफ्ते तक एंटी डिप्रेसेंट्स के कुदरती स्तर जितने पानी में रखा गया जबकि कुछ को ताजे पानी में.


मछलियों को एक शेल्टर में रखा गया था जिसका मुंह वाई के आकार का था और अंदर भूल-भुलैया थी. यानी एक छोटा मुंह जो दो रास्तों पर खुलता था. एक रास्ते पर खाने के रसायनिक संकेत छोड़े गए जबकि दूसरे में एक अन्य कर्क मछली के होने के. जो मछलियां एंटी डिप्रेसेंट मिले पानी में रह रही थीं, वे अपने शेल्टर से जल्दी निकलीं और भोजने की खोज में ज्यादा देर तक बाहर रहीं. लेकिन उन्होंने उस रास्ते से परहेज किया जहां दूसरी मछली के होने के संकेत थे. राइजिंगर कहते हैं कि उनके शोध के नतीजों को ज्यों का त्यों कुदरती वातावरण पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि पानी में भारी धातुओं और हाइड्रोकार्बन्स जैसे और भी बहुत से प्रदूषक हो सकते हैं.

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