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गहरा सकता है केंद्र- राज्य विवाद बंगाल सरकार चाहती है विधान परिषद की वापसी




पश्चिम बंगाल (West Bengal) में एक बार फिर सत्ता संभालते ही तृणमूल कांग्रेस (Trinamool Congress) ने अपने घोषणापत्र में किए वादे को निभाने की शुरुआत 50 साल पहले गठबंधन में बनी वाम सरकार के फैसले को पलट कर की है. दरअसल तृणमूल कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया था कि सत्ता संभालते ही राज्य में विधान परिषद की स्थापना को अनुमति देगी.


छह राज्यों में विधान परिषद


फिलहाल भारत में छह राज्यों में विधान परिषद मौजूद हैं, इनमें, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और कर्नाटक शामिल है. हालांकि विधान परिषद की अनुमति देना पूरी तरह से राज्य सरकारों के हाथ में नहीं होता है, इसके लिए केंद्र सरकार को भी संसद में बिल पारित करना होता है.


ऐसे में पश्चिम बंगाल में मौजूदा सरकार का यह फैसला केंद्र और राज्य के बीच फिर से विवाद को जन्म दे सकता है.


विधानसभा और दो सदन का इतिहास


भारत में दो सदनों के साथ विधानसभा के अस्तित्व का इतिहास काफी पुराना और लंबा है. सबसे पहले 1919 में मोंटेगू चेम्सफोर्ड सुधार के तहत भारत में राष्ट्रीय स्तर पर राज्य परिषद अस्तित्व में आए. दरअसल 1917 में जब एडविन मोंटेगू भारत में राज्यों के सचिव नियुक्त हुए, उस दौरान लॉर्ड चेम्सफोर्ड भारत के वाइसरॉय थे. इन दोनों ने मिलकर भारत सरकार के कानून में सुधार की एक रूपरेखा तैयार की जिसे मोंट-फोर्ड के नाम से जाना जाता है. इसी के अंतर्गत विधानसभा में दो हाउस रखने की पैरवी की गई. हालांकि ये सुधार ज्यादा दिन तक चला नहीं. आगे चलकर 1935 में भारत सरकार अधिनियम में देश में द्विसदनीय विधानसभा को मंजूरी मिली. 1937 में पहली बार बंगाल में ही कानून के तहत विधानपरिषद की कार्यवाही शुरू हुई.


संविधान निर्माण के दौरान संविधान सभा में राज्य में दूसरे सदन को लेकर असहमति थी. राज्य सभा के समर्थन में हुई बहस में ये पक्ष रखा गया कि दूसरा सदन बनने से जल्दबाजी में बने कानून पर लगाम लग सकेगी और सदन को कुछ और पक्ष भी मिलेंगे. वहीं जब बात राज्यों की चली तो संविधान सभा में इसे लेकर एक राय कायम नहीं हो सकी.


राज्‍यों को अनुमति थी कि वह दूसरी सदन को खत्‍म कर सकते हैं


बिहार से ताल्लुक रखने वाले प्रोफेसर के टी शाह ने कहा है कि राज्य में दूसरे सदन के प्रारूप को तैयार करने और सदस्यों को वेतन देने में राजकोष का बड़ा हिस्सा लगता है. ये सदस्य सिर्फ अपने आलाकमान की सहायता करने और जरूरी कानूनों को पारित करने में रुकावट पैदा करने से ज्यादा कुछ नहीं करते.


संविधान निर्माताओं ने शुरूआत में बिहार, बॉम्बे, मद्रास, पंजाब, संयुक्त प्रांत और पश्चिम बंगाल में विधान परिषद की अनुमति दी थी. फिर उन्होंनें राज्यों को विकल्प दिया कि अगर वह चाहें तो विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके दूसरे सदन का निर्माण या उसे समाप्त कर सकते हैं.


पश्चिम बंगाल विधान परिषद 1969 तक अस्तित्व में थी


पश्चिम बंगाल विधान परिषद 1969 तक अस्तित्व में थी. ऐसा होने की वजह इससे दो साल पहले की कुछ घटनाएं थीं. 1967 में चौथे आम चुनाव में कांग्रेस ने कई राज्यों में सत्ता खोई. पश्चिम बंगाल में 14 पार्टियों के गठबंधन से बनी संयुक्त मोर्चा सरकार बनी और विपक्ष का रोल कांग्रेस ने निभाया. मुख्यमंत्री अजॉय कुमार मुखर्जी ने डिप्टी सीएम ज्योति बसु के साथ मिलकर सरकार चलाई जो ज्यादा दिन नहीं चली और आठ महीने बाद राज्यपाल धरम वीरा ने सरकार को बरख़ास्त कर दिया. पहले भी सीएम बन चुके स्वतंत्र विधायक पीसी घोष ने कांग्रेस के समर्थन से फिर से सीएम पद संभाला. पश्चिम बंगाल के दोनों सदनों में अलग अलग माहौल था. विधानसभा में स्पीकर ने राज्यपाल के कदम को गैर संवैधानिक बताया. वहीं कांग्रेस के बहुमत वाले परिषद में प्रस्ताव पारित कर घोष की सरकार पर भरोसा जताया गया. इस प्रस्ताव ने परिषद की समाप्ति के लिए रास्ते खोल दिए.1969 में मध्यवर्ती चुनाव के बाद दूसरी बार संयुक्त मोर्चा सत्ता में आई. जिन 32 मुद्दों पर इसने चुनाव लड़ा, उसमें 31वां बिंदू परिषद की समाप्ति थी और सरकार ने यह काम सबसे पहले किया.


विधानसभा प्रस्ताव पारित विधान परिषद का गठन या समाप्‍त कर सकती है


संविधान के अनुच्छेद 168 के मुताबिक विधानसभा प्रस्ताव पारित करके विधान परिषद का गठन या समाप्त कर सकती है. यह प्रस्ताव दो तिहाई विधानसभा सदस्यों द्वारा पास किया जाना चाहिए. फिर इससे संबंधित बिल संसद में पास किया जाता है. पश्चिम बंगाल में मार्च 1969 में यह प्रस्ताव पारित हुआ और चार महीने बाद संसद के दोनों सदन में इससे जुड़ा कानून पास हुआ. पंजाब ने भी यही किया और एक साल बाद वहां भी परिषद को समाप्त कर दिया गया.


अन्य राज्यों में परिषद


हालांकि विधान परिषद का होना, नहीं होना एक राजनीतिक मुद्दा है. जैसे तमिलनाडु में पिछले तीन दशक से परिषद के गठन पर चर्चा चल रही है. 1986 में एआईएडीएमके ने राज्य के परिषद को भंग कर दिया था. तब से डीएमके बार बार परिषद की बहाली का प्रयास कर चुका है लेकिन हो नहीं पा रहा. डीएमके ने भी हालिया चुनाव में परिषद के गठन का वादा किया था.


2018 में कांग्रेस ने ऐसा ही वादा मध्यप्रदेश चुनाव में किया. आंध्रप्रदेश में 1958 में पहली बार विधान परिषद का गठन हुआ, 1985 में टीडीपी ने इस समाप्त किया और 2007 में कांग्रेस ने इसकी बहाली का काम किया. हालांकि विधानसभा में इससे संबंधित प्रस्ताव पारित करने से बात नहीं बनती. संसद में बिल पास होना जरूरी है. 2010 में असम और 2012 में राजस्थान विधानसभा में परिषद के गठन का प्रस्ताव पास हुआ लेकिन इससे जुड़े दोनों बिल राज्यसभा में अटक गए. और आंध्रप्रदेश विधान परिषध को समाप्त करने से जुड़ा बिल तो अब तक संसद में लाया ही नहीं गया है.

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