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हीरे की बलि चढ़ते "बक्स्वाहा के जंगल" - Bharat 24

Updated: Jun 30, 2021


Editorial@VikrantTiwari


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जलवायु के देवता वृक्ष की करो आरती


इस जून के महीने में विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर आपने भी पर्यावरण को बचाने के लिए सोशल मीडिया पर कई पोस्ट लिखे होंगे , मैसेज फॉरवर्ड किए होंगे, कई वेबिनार और गोष्ठियों में पर्यावरण बचाने की चर्चा हुई होगी और इन सब के बाद इसे भुला दिया गया होगा।


पर्यावरण संरक्षण के विषय में सरकारों की बड़ी-बड़ी बातें और धरातल में अपने जंगल को बचाने के लिए जूझते के लोगों के बीच आप यकीन मानेंगे देश में एक साथ ढाई लाख से ज्यादा पेड़ों को काटने का प्रयास किया जा रहा है।

मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले की बकस्वाहा क्षेत्र में फैले इस हजारों एकड़ जंगल के दो लाख से अधिक पेड़ अब खतरे में है | जंगल पर यह संकट बंदर हीरा खदान के हीरो के खनन से जुड़ा हुआ है|


क्या है बक्सवाहा हीरा प्रोजेक्ट


बक्सवाहा हीरा खदान देश का सबसे बड़ा हीरा भंडार है, यह खदान एशिया का दूसरा सबसे बड़ा खदान भी होने की क्षमता रखता है। लगभग 3.30 करोड़ कैरेट का जो कि यह पन्ना हीरा खदान से 15 गुना ज्यादा है पर कीमत लगभग 3.82 एकड़ जंगल और लगभग 215875 से अधिक पेड़ों की कुर्बानी


अभी चर्चा में क्यू है बक्स्वाहा


दरअसल एमपी की सरकार ने इस इलाके की 342 हेक्टेयर जमीन पर हीरा खनन की अनुमति दे दी है।

यहां पर तकरीबन 60'000 करोड़ों रुपए मैं हीरा खनन के लिए बिरला ग्रुप को अनुमति दी गई है, पर यह अभी केंद्र सरकार के पर्यावरण वन मंत्रालय के लंबित है ।

यह फाइल लंबित होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि जिस इलाके में यह हीरा निकाले जाने हैं वहां पर लगभग दो लाख से अधिक पेड़ों को काटे जाने की बात सामने आ रही है, वन विभाग के सर्वे रिपोर्ट कहती है कि खनन के कारण यहां लगभग ढाई लाख से ज्यादा पेड़ काटे जाएंगे जिससे बड़ा नुकसान हो सकता है। इन्हीं पेड़ों को बचाने के लिए #SaveBaksawahaForest के नाम से एक मुहिम चलाई जा रही है जिसे देश भर से पर्यावरण प्रेमियों और आम जन का साथ मिल रहा है।


जैव विविधता के भरपूर इस जंगल में सागवान, पीपल,तेंदू, जामुन, बेहड़ा,अर्जुन जैसे कई औषधीय पेड़ भी हैं। बक्सवाहा के गांव में रहने वाले स्थानीय आदिवासी इन्हीं जंगलों से रोजी-रोटी कमाते हैं,वह कहते हैं जंगल खत्म तो वह भी खत्म हो जाएंगे।


पहले भी हुआ है परियोजना का विरोध


बक्सरा के जंगल में हीरा खनन की इस परियोजना का विरोध पहले भी हुआ था। उस वक़्त दुगने पेड़ काटे जाने की योजना थी, साल 2000 में कांग्रेस के शासनकाल में रियो टिंटो को हीरे खोजने के लिए सर्वेक्षण की अनुमति मिली । सन 2012 में रियो टिंटो ने माइनिंग लीज के लिए 954 हेक्टेयर के संरक्षित वन क्षेत्र में खनन के पट्टे के लिए आवेदन किया- बताया कि यहां 3.30 करोड़ हीरे का भंडार है। वन विभाग के सर्वे में पता लगा कि यहां लगभग 5,00000 पेड़ हैं। पर्यावरण मंजूरी न मिलने के कारण कंपनी बैकफुट पर आ गई और 364 हेक्टेयर की मांग करने लगी, लंबे इंतजार के बाद कंपनी ने 2017 में इस परियोजना से अपने हाथ खींच लिए।


2019 में कमलनाथ सरकार ने भी फिर से इसकी नीलामी करवाई, 10 दिसंबर 2019 को हुई इस नीलामी में आदित्य बिरला ग्रुप की कंपनी ने 50 सालों का ठेका हासिल किया । जिसके अंतर्गत जंगल में 62.64 हेक्टेयर क्षेत्र हीरा निकालने के लिए चयनित किया गया लेकिन कंपनी ने 382.131 हेक्टेयर का जंगल मांगा है । कंपनी का तर्क है कि बाकी 205 हेक्टेयर जमीन का उपयोग खदानों से निकले मलबे को डंप करने में किया जाएगा ।

इस 50 साल की लीज की अवधि में राज्य सरकार को हर साल लगभग 1550 करोड़ राजस्व मिलने की उम्मीद है ।


वन जीवो पर है संकट : 5 सालों में बदल गई रिपोर्ट


हीरे निकालने के लिए पेड़ काटने से वन्यजीवों पर भी संकट आना तय है। मई 2017 में पेश की गई जियोलॉजी एंड माइनिंग मप्र और रियोटिंटो कंपनी की रिपोर्ट में तेंदुआ, बाज (वल्चर), भालू, बारहसिंगा, हिरण, मोर जैसे जंगली जीवो का इस जंगल में होना पाया था । लेकिन अब नई रिपोर्ट में इन वन्यजीवों के यहां होना नहीं बताया जा रहा है। दिसंबर में डीएफओ और सीएफ छतरपुर की रिपोर्ट में भी इलाके में संरक्षित वन्यप्राणी के आवास नहीं होने का दावा किया है।इन 5 साल में रिपोर्ट की ऐसी बदली भी समझ से परे है


पानी की किल्लत का करना पड़ेगा सामना


इस खदान में हर रोज लगभग 16050 क्यूबिक-लीटर पानी की खपत होगी ,जिसके लिए यहां पर गुजरने वाले बरसाती नाले पर बांध बनाया जाएगा । भारत सरकार की "CGWA सेंट्रल ग्राउंड वॉटर अथॉरिटी " मानती है कि मध्य प्रदेश का छतरपुर जिला पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहा है, इसे देखते हुए जिले को सेमी क्रिटिकल की श्रेणी में रखा गया है।

इस श्रेणी में वह जिले होते हैं जहां पानी की समस्या अधिक होती है।

लोगों को डर है कि इस परियोजना से पर्यावरण खराब होगा और पानी की कमी से जूझ रहे लोगों के सामने समस्या और गंभीर हो जाएगी।


NGT में दायर है याचिका


एक सामाजिक संस्था द्वारा एनजीटी में याचिका दायर कर यह कहा गया कि 364 हेक्टेयर वन भूमि में हीरा खनन की अनुमति देने से पर्यावरण संबंधित जटिलताएं सामने आ सकती हैं। इसमें ना केवल लाखों पेड़ों को काटा जाएगा अपितु Underground Water Management और इकोलॉजिकल बैलेंस भी प्रभावित होगा ।

सुनवाई के दौरान माइनिंग कंपनी ने किसी भी तरह के पर्यावरण नुकसान ना होने देने की बात कही है । जिस पर एनजीटी ने उनसे लिखित तौर पर शपथ पत्र मांगा है।


चिपको आंदोलन चला रहे है युवा


इस महाविनाश को रोकने के लिए बड़ी संख्या में पर्यावरण प्रेमी चिपको आंदोलन और सोशल मीडिया पर #Save_Buxwaha_forest और #बक्सवाहा_बचाओ_अभियान जैसे हैशटैग का उपयोग कर सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं ।


मानव सभ्यता के लिए खतरनाक है जंगल का खात्मा


इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों को काटना कितना खतरनाक हो सकता है इसे आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं ।

आज से 15 वर्ष पहले लैटिन अमेरिका के पेरू देश में "नाजका सभ्यता" अपने सैकड़ों वर्षो के इतिहास के बाद अचानक गायब हो गई थी। ब्रिटेन के कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के मुताबिक इस सभ्यता ने अपने जंगल को काटकर कपास और मक्के की खेती शुरू कर दी थी, जिसकी वजह से वहां के रेगिस्तानी इलाकों में इकोसिस्टम नष्ट हो गया, इस कारण वहां बाढ़ आई और यह सभ्यता पूरी तरह से नष्ट हो गई ।जंगल काटना सभ्यता को कितना महंगा पड़ा।


भारत में पर्यावरण नियमो का अनुपालन


इसी साल 29 अप्रैल को मध्यप्रदेश के रायसेन में एक किसान ने सागौन के दो पेड़ काट दिए थे, इस खबर की सूचना वन विभाग को मिली तो इस किसान पर कार्यवाही हुई और 2 पेड़ काटने के लिए विभाग की तरफ से ₹100000 रुपए का जुर्माना लगाया गया।

वन विभाग ने कहा था कि एक पेड़ की उम्र 50 वर्ष होती है और यह ₹60 लाख का फायदा कराता है , अब सागौन के लगभग 40000 पेड़ तो इस जंगल में भी हैं ,तो क्या इन पेड़ों को काटने के लिए वन विभाग प्रति पेड़ ₹600000 के हिसाब से ₹24000 करोड़ रुपए का जुर्माना भरेगा यह भी एक सवाल है?


हीरा जरूरी या हरियाली


कोरोना काल में जिस तरह से ऑक्सीजन की दिक्कत से जनता त्राहिमाम कर रही थी उसे ज्यादा दिन नहीं गुजरा है ।इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च एजुकेशन में एक पेड़ की औसत उम्र 50 साल मानी गई है। इन 50 सालों में एक पेड़ 23 लाख 68 हजार रुपए की कीमत का वायु प्रदूषण कम करता है । साथ ही 20 लाख की कीमत का भू- छरण को भी नियंत्रित करता है ।


लाख टके का सवाल यह है कि हमे हीरा जरूरी है या जंगल ?

हीरा निकालने के लिए जंगलों का सफाया कितना सही है यह सरकार को सोचना होगा क्योंकि कीमत सिर्फ हीरे कि नहीं उस जंगल की भी है जो वहां कई 100 सालों से लगे हुए हैं।



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